भाग ३

 

श्रीअरविन्द आश्रम

 

श्रीअरविन्द आश्रम

 

१९१० से १९२० तक श्रीअरविन्द अपने चार-पांच शिष्यों के साथ पॉण्डिचेरी में निवास करते थे ।

 

  १९१४ में माताजी' (पॉल रिशार के साथ) फांस से आयी और श्रीअरविन्द ने 'आर्य' का प्रकाशन शुरू किया जो १९२० की जनवरी तक चलता रहा ।

 

  अप्रैल ११२० में माताजी जापान से वापिस आयी और धीरे-धीरे लोगों की संख्या बढ़ने लगी । १९२६ में आश्रम की स्थापना हुई ।

 

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यधापि इस तथ्य में एक मनोहरता और काव्य ने कि हमारे आश्रम की स्थापना की कोई औपचारीक तिथि नहीं है फिर भी क्या गुल्म दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि आश्रम का जन्म माताजी के आने के साध-साथ हुआ ?

 

   आश्रम मेरे जापान से लोटने के कुछ वर्ष बाद, १९२६ में, जन्मा था ।

 

 १७ अप्रैल, १९६७

 

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२१ फरवरी माताजी' का जन्मदिन है ।

 

  २९ मार्च उनके पहली बार आने और श्रीअरविन्द के साथ मिलने की वर्षगांठ है ।

 

  ४ अप्रैल आश्रम का नव वर्ष है । यह श्रीअरविन्द के पॉण्डिचेरी आने की तिथि है ।

 

  २४ अप्रैल १९२० माताजी के अनंतिम बार पॉण्डिचेरी लौट आने का दिन है ।

 

  १५ अगस्त श्रीअरविन्द का जन्मदिन है ।

 

  २४ नवम्बर, १९२० में घटी हुई महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक घटना के स्मारक के रूप में 'सिद्धि' दिवस कहलाता है ।

 

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   १'यहां माताजी अपने बारे में तृतीय पुरुष का उपयोग कर रही हैं ।

 

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आमतौर पर साधनाओं का लक्ष्य होता है सच्चिदानन्द के साथ ऐक्य । और जो लोग वहां पहुंच जाते हैं वे अपनी मुक्ति से सन्तुष्ट होकर संसार को उसकी दुःख- भरी अवस्था मे छोड़ जाते हैं । इसके विपरीत, जहां औरों की साधना समाप्त होती हैं वहां से श्रीअरविन्द की साधना शुरू होती है । एक बार सच्चिदानन्द के साध ऐक्य सिद्ध हों जाये तो तुम्हें उस सिद्धि को बाह्य जगत् मे उतारना और धरती पर जीवन की अवस्थाओं को बदलना चाहिये जब तक कि पूर्ण रूपान्तर सम्पन्न न हो जाये । इस लक्ष्य के अनुसार, पूर्ण योग के साधक ध्यान- धारणा का जीवन बिताने के लिए इस जगत् से निवृत्त नहीं हो जाते । हर एक को कमसेकम अपना एक तिहाई समय किसी उपयोगी कार्य मे लगाना चाहिये । आश्रम में सभी तरह के काम होते हैं और हर एक ऐसा काम चुनता हे जो उसकी प्रकृति के सबसे अधिक अनुकूल हो, लेकिन उस काम को सेवाभाव के साथ, नि:स्वार्थता

 

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सें करना चाहिये और हमेशा सर्वांगीण रूपान्तर के लक्ष्य को ध्यान में रखना चाहिये ।

 

  इस उद्देश्य को संभव बनाने के लिए आश्रम की व्यवस्था इस तरह की गयी है कि सब आश्रमवासियों की उचित आवश्यकताएं पूरी हो सकें और उन्हें अपने भरण-पोषण के लिए चिन्ता न करनी पड़े ।

 

  नियम बहुत हो कम हैं ताकि हर एक अपने विकास के लिए आवश्यक, पूरी स्वाधीनता पा सके लेकिन कुछ चीजों की सख्ती से मनाही है । वे हैं - (१) राजनीति, (२) धूम्रपान, (३) मद्यपान और (४) कामकेलि ।

 

  छोटे-बड़े, जवान और बूढ़े, सभी के अच्छे स्वास्थ्य, योगक्षेम और शरीर के सामान्य विकास के लिए पूरी सावधानी बराती जाती है ।

 

२४ सितम्बर, १९५३

 

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 बाहरी रंग-रूप और नियम बदलते रहते हैं परन्तु हमारी श्रद्धा और हमारा लक्ष्य एक ही है ।

 

३० अक्तूबर, १९५४

 

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हमारा लक्ष्य न तो राजनीतिक है, न सामाजिक, वह आध्यात्मिक लक्ष्य है । हम जो चाहते हैं वह वैयक्तिक चेतना का रूपान्तर है, शासन या सरकार का परिवर्तन नहीं । उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए हम किसी मानव साधन पर विश्वास नहीं करते, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो । हमें केवल ' भागवत कृपा ' का भरोसा हैं ।

 

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 यहां हमारे लिए केवल एक हीं चीज का मूल्य है । हम भगवान् के लिए अभीप्सा करते हैं, भगवान् के लिए जीते हैं, भगवान् के लिए कार्य करते

 

जुलाई, १९५६

 

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युगों की प्रबल अभीप्सा हमें यहां ' भागवत कार्य ' करने के लिए लायी है ।

 

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  मधुर मां हमें बतलाया गया ने कि बच्चों के आश्रम में आने ले पहले यहां की शांति कहीं अधिक कठोर थीं और अनुशासन बहुत कडा परिस्थितियां क्यों और कैसे बदली?

 

बच्चों के आने से पहले, आश्रम में केवल उन्हीं लोगों को प्रवेश मिलता था जो साधना करना चाहते थे और केवल उन्हीं आदतों और क्रिया- कलाप को होने दिया जाता था जो साधना के अभ्यास मे उपयोगी हों । लेकिन चूंकि बच्चों से साधना करने की मांग करना नासमझी होगी, इसलिए जैसे हीं आश्रम में बच्चों का प्रवेश हुआ, इस सख्ती को गायब हो जाना पड़ा ।

 

जनवरी, १९६१

 

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मानवजाति की वर्तमान उपलब्धियों में से कोई भी, चाहे वह कितनी भी महान् क्यों न हो, हमारे लिए अनुकरण करने योग्य आदर्श नहीं बन सकतीं । मानव आदेशों के परीक्षण-क्षेत्र के रूप मे विशाल जगत् पड़ा है । हमारा उद्देश्य बिलकुल भिन्न है और अगर अभी हमारी सफलता के अवसर बहुत कम हों तो भी हमें विश्वास है कि हम भविष्य को तैयार करने के लिए काम कर रहे हैं ।

 

  मैं जानती हूं कि बाह्य दृष्टिकोण सें हम जगत् की बहुत-सी वर्तमान उपलब्धियों से नीचे हैं, परन्तु हमारा उद्देश्य मानव मानदण्ड के अनुसार पूर्णता नहीं है । हम किसी और चीज के लिए प्रयास कर रहे हैं जो भविष्य की है ।

 

  आश्रम की स्थापना इसीलिए की गयी है और उसका उद्देश्य भी यही हैं कि वह नये जगत् का पालना बने ।

 

  ऊपर की प्रेरणा, ऊपर की पथप्रदर्शक शक्ति ओर ऊपर की सर्जक- शक्ति नयी उपलब्धि के अवतरण के लिए कार्यरत हैं ।

 

  केवल अपनी त्रुटियां, अपनी अपूर्णताओं और अपनी असफलताओं

 

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के नाते आश्रम वर्तमान जगत् का है ।

 

   मानवजाति की वर्तमान उपलब्धियों में से किसी में वह शक्ति नहीं है जो आश्रम को उसकी कठिनाइयों से बाहर निकाल सकें ।

 

   आश्रम के सभी सदस्यों का पूर्ण परिवर्तन और अवतरित होते हुए ' सत्य ' के 'प्रकाश ' की ओर सर्वागीण उद्घाटन ही उसे अपने- आपको चरितार्थ करने मे सहायता दे सकते हैं ।

 

   निस्संदेह, यह बहुत कठिन कार्य है, लेकिन हमें इसे पूरा करने की आज्ञा मिली है और हम धरती पर केवल इसी उद्देश्य से हैं ।

 

   हम परम प्रभु की ' इच्छा ' और ' सहायता ' में अडिग विश्वास के साथ अंत तक चलते चलेंगे ।

द्वार खुला हुआ हैं और उन सबके लिए हमेशा खुला रहेगा जो इस उद्देश्य के लिए अपना जीवन देने का निश्चय करें ।

 

१३जून, १९६४

 

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 यहां कोई चीज ऐसी हे जो बाहरी दिखावों से बहुत ज्यादा अच्छी ने हृदय और आत्मा मे ऊष्मा भरे प्राणदायी सूर्य जेसी हे!

 

ठीक पहचाना तुमने, और मैं तुम्हें बधाई देती हू । जो केवल बाहरी दिखावों को देखते हैं वे उनमें सूक्ष्म परन्तु महत्त्वपूर्ण भेदों को नहीं पहचान पाते जो सच्ची और प्रकाशमयी चेतना की उपस्थिति से आते हैं ।

 

११ जून, १९६७

 

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 यहां पर हमारा कोई धर्म नहीं है । हम धर्म के स्थान पर आध्यात्मिक जीवन को रखते हैं जो एक ही साथ अधिक सच्चा, अधिक गहरा और अधिक ऊंचा है, यानी, भगवान् के अधिक निकट है । क्योंकि भगवान् हर चीज में हैं, परन्तु हम उनके बारे में सचेतन नहीं हैं । यही वह विशाल प्रगति है जो मनुष्य को करनी चाहिये ।

 

११ मार्च १९७३

 

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